भाऊराव देवरस

शिशु मंदिर के मार्गदर्शक भाऊराव देवरस


उ.प्र. में यों तो संघ की शाखा सर्वप्रथम काशी में भैयाजी दाणी द्वारा प्रारम्भ की गयी थी; पर संघ के काम को हर जिले तक फैलाने का श्रेय श्री मुरलीधर दत्तात्रेय (भाऊराव) देवरस को है। उनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 (देवोत्थान एकादशी) को नागपुर के इतवारी मोहल्ले के निवासी एक सरकारी कर्मचारी श्री दत्तात्रेय देवरस के घर में हुआ था। वे पांच भाई थे तथा उनसे दो वर्ष बड़े श्री मधुकर दत्तात्रेय (बालासाहब) देवरस भी संघ के प्रचारक बनकर अनेक दायित्व निभाते हुए संघ के तीसरे सरसंघचालक बने।

उन दोनों भाइयों की जोड़ी बाल-भाऊ के नाम से प्रसिद्ध थी। संघ की स्थापना होने पर पहले बाल और फिर 1927-28 में भाऊ भी शाखा जाने लगे। डा. हेडगेवार के घर में खूब आना-जाना होने से दोनों संघ और उसके विचारों से एकरूप हो गये। 1937 में भाऊराव ने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। अब डा. हेडगेवार ने उन्हें उ.प्र. में जाने को कहा। अतः भाऊराव ने लखनऊ वि.वि. में बी.काॅम तथा एल.एल.बी. में प्रवेश ले लिया। उन दिनों वहां दो वर्ष में डबल पोस्ट डिग्री पाठ्यक्रम की सुविधा थी। भाऊराव ने दोनों विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त किये। लखनऊ में वे संघ के साथ स्वाधीनता आंदोलन में भी सक्रिय रहे। उनके प्रयास से वहां सुभाष चंद्र बोस का एक भव्य कार्यक्रम हुआ था। 

भाऊराव के घर की स्थिति बहुत सामान्य थी। वे अब आसानी से कहीं भी डिग्री काॅलेज में प्राध्यापक बन सकते थे; पर उन्हें तो उ.प्र. में संघ का काम खड़ा करना था। अतः वे यहीं डट गये। एम.एस-सी. के छात्र बापूराव मोघे भी उनके साथ थे। घर वालों ने पैसे भेजना बंद कर दिया था। अतः ट्यूशन पढ़ाकर तथा एक समय भोजन कर वे दोनों शाखा विस्तार में लगे रहे। 

उन दिनों नागपुर में श्री मार्तंडराव जोग का गुब्बारे बनाने का कारखाना था। भाऊराव ने लखनऊ में गुब्बारे बेचकर कुछ धन का प्रबन्ध करने का प्रयास किया; पर यह योजना सफल नहीं हुई। 1941 में उन्होंने काशी को अपना केन्द्र बना लिया। क्योंकि वहां काशी हिन्दू वि.वि. में पढ़ने के लिए देश भर से छात्र आते थे। वहां श्री दत्तराज कालिया की हवेली में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। यद्यपि उनका पूरा दिन छात्रावासों में ही बीतता था। उन छात्रों के बलपर क्रमशः उ.प्र. के कई जिलों में शाखाएं खुल गयीं। श्री दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, रज्जू भैया जैसे श्रेष्ठ छात्र उन दिनों उनके संपर्क में आये, जो फिर संघ और अन्य अनेक कामों में शीर्षस्थ स्थानों पर पहुंचे।

उ.प्र. में संघ कार्य करते हुए भाऊराव का ध्यान और भी कई दिशाओं में रहता था। इसी के परिणामस्वरूप 1947 में लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई। जिसके माध्यम से राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य साप्ताहिक तथा तरुण भारत जैसे दैनिक पत्र प्रारम्भ हुए। आज ‘विद्या भारती’ के नाम से देश भर में लगभग एक लाख विद्यालयों का जो संजाल है, उसकी नींव 1952 में गोरखपुर में 'सरस्वती शिशु मंदिर' के माध्यम से रखी गयी थी। 

उ.प्र. में संघ कार्य को दृढ़ करने के बाद भाऊराव क्रमशः बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक तथा फिर सह सरकार्यवाह बनाये गये। इन दायित्वों पर रहते हुए उन्होंने पूरे देश में प्रवास किया। फिर उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। यहां रहते हुए वे विद्या भारती तथा भारतीय जनता पार्टी जैसे कामों की देखरेख करते रहे। व्यक्ति पहचानने की अद्भुत क्षमता के कारण उन्होंने जिस कार्यकर्ता को जिस काम में लगाया, वह उस क्षेत्र में यशस्वी सिद्ध हुआ। 

धीरे-धीरे उनका शरीर थकने लगा। फिर भी उनकी मानसिक जागरूकता बनी रही। 13 मई, 1992 को दिल्ली में ही उनका देहांत हुआ। आज संघ और स्वयंसेवकों द्वारा संचालित अनेक कार्यों में उ.प्र. के कार्यकर्ता प्रमुख स्थानों पर हैं। इसका श्रेय निःसंदेह भाऊराव और उनकी अविश्रांत साधना को ही है।